22 मई, 1987 हाशिमपुरा नरसंहार पुरी कहानी


1987 हाशिमपुरा नरसंहार
Hashimpura 1987
22 मई. वो तारीख, जब 1987 के हाशिमपुरा नरसंहार की बात होती है.उस घटना में 42 मुस्लिमों को गोलियों से भून दिया गया था. मरने वालों को मुस्लिम इसलिए कहा जाएगा, क्योंकि उन्हें मुस्लिम होने की वजह से ही मारा गया था.
22 मई, 1987 की रात थी. प्रांतीय सशस्त्र बलों (पीएसी) का URU1493 नंबर का ट्रक चला जा रहा था. थ्री नॉट थ्री राइफल लिए 19 जवान दूर से ट्रक पर खड़े दिखाई दे रहे थे. जो नहीं दिख रहे थे वो थे ट्रक में सिर नीचे किए बैठे 50 मुस्लिम लड़के. सब के सब घर से अलविदा की नमाज़ अदा करने निकले थे.
इनमें से ज्यादातर घर नहीं लौटे.
इतिहास में ये तारीख हाशिमपुरा नरसंहार के नाम से जानी जाती है. वो काला धब्बा जिसने हमारे पुलिस सिस्टम का खौफनाक चेहरा दिखाया.
बिना किसी वजह, बेगुनाहों को सिर्फ उनके धर्म के आधार पर क़त्ल किया गया और तीस हज़ारी कोर्ट के सबसे लंबे ट्रायल में 2015 में सभी 19 पुलिसवाले बरी करार दिये गए.
मारे गए लोगों के परिवारों को इंसाफ मिला 31 साल बाद. 31 अक्टूबर, 2018 को. दिल्ली हाईकोर्ट ने 16 पुलिसवालों को उम्रकैद की सज़ा दी. फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने कहा,
“आर्म्ड फोर्सेज़ के लोगों ने निशाना बनाकर हत्या की. अल्पसंख्यक समुदाय के लोग कत्ल किए गए. उनके परिवार को न्याय पाने के लिए 31 साल तक इंतजार करना पड़ा.”
 तब कांग्रेस पार्टी के राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे. दूरदर्शी, मिलनसार और नई सोच वाले युवा राजीव, या वो राजीव जो शाहबानो मामले पर प्रगतिशीलता भूल जाते थे, जिनके लिए बड़े पेड़ के गिरने पर ज़मीन का हिलना एक सामान्य हलचल था. यूपी में वीर बहादुर सिंह की सरकार थी – कांग्रेस के हिंदुत्ववादी कहे जानेवाले मुख्यमंत्री. 1986 में राम जन्मभूमि का ताला खुल चुका था और इसी के साथ ध्रुवीकरण की सियासत का वो चेन रिएक्शन शुरू हो चुका था जिस पर चलकर आगे बाबरी विध्वंस, मुंबई बम विस्फोट, बनारस और कानपुर के दंगों जैसी घटनाएं हुईं.

क्या हुआ था?

अप्रैल 1987 में मेरठ में दंगे हुए. पीएसी बुलाई गई. मगर माहौल शांत होने पर हटा दी गई. 19 मई को दोबारा दंगे भड़के. 10 लोग मारे गए. इस बार सेना ने फ्लैग मार्च किया. सीआरपीएफ की 7 और पीएसी की 30 कंपनियां लगाई गईं. कर्फ्यू घोषित कर दिया गया. अगले दिन भीड़ ने गुलमर्ग सिनेमा हॉल को आग लगा दी. मरने वालों की गिनती 22 तक पहुंच गई और 20 मई को देखते ही गोली मारने के आदेश दे दिए गए.

वो काली ख़ौफनाक रात

 पीएसी के प्लाटून कमांडर सुरिंदर पाल सिंह 19 जवानों के साथ मेरठ के हाशिमपुरा मोहल्ला पहुंचे.
 अलविदा की नमाज़ हो चुकी थी. सेना ने पहले से करीब 644 लोगों को पकड़ रखा था. इनमें से हाशिमपुरा के 150 मुसलमान नौजवान थे.
 इन्हें पीएसी के हवाले कर दिया गया. भीड़ में से औरतों और बच्चों को अलग कर घर भेज दिया गया.
 बताया जाता है कि करीब 50 लोगों को पीएसी अपने साथ ले गई. इनमें ज़्यादातर दिहाड़ी मजदूर और बुनकर थे.
पुलिस की पिटाई में कुछ ने दम तोड़ दिया. बाकी बचे लोग ट्रक में इस तरह से बैठे थे कि दूर से दिखाई न पड़ें.
ट्रक मुरादनगर के गंगा ब्रिज पर पहुंचा और तीन लोगों को गोली मार कर नहर में फेंक दिया गया.
जो बाकी बचे उन्हें अपनी नियति का अंदाज़ा लग चुका था. सबने ऊपर वाले को याद किया और हाथापाई करने की ‘आखिरी कोशिश’ की. जैसे ही भीड़ खड़ी हुई, राइफल की गोलियों ने सब को भून दिया. लाशें नहर में ठिकाने लगा दी गईं. कुल 42 लोगों को मारा गया.

जो बचे उन्होंने कहानी सुनाई

कुछ नहर में बहते हुए दूर निकल गए. किसी को खून से सना बेहोश देखकर मुर्दा मान लिया गया. कोई दम साधे लाशों के नीचे भी पड़ा रहा. कुल पांच लड़के ज़िंदा बच गए.
इनमें से कमरुद्दीन को तीन गोलियां लगी थी, आंतें बाहर आ गई थीं. उसी के साथ नासिर था. आगे की कहानी उसी के शब्दों में जो उसने बाद में इंडिया टुडे को सुनाई.
“कुछ लोग आ गए. पूछा, ‘तुम कौन हो.’ हमने उन्हें ये नहीं बताया कि हमें पीएसी के जवानों ने मारा है. हमने बताया कि स्कूटर से आ रहे थे, बदमाशों ने लूटपाट की और गोली मार दी. लेकिन वे लोग समझ गए होंगे.
उन्होंने कहा, ‘तुम यहीं ठहरो. बाबा को बुलवाता हूं कि वे पट्टी कर देंगे.’
पर मैं भांप गया, वह दूसरे आदमी से बोला था कि पुलिस को बुलाओ. कमरुद्दीन बोला, ‘तू भग जा, मैं तो बचने का नहीं, मेरे चक्कर में तू भी मारा जाएगा.’
तब मैं वहां से भागा. वहां से भागकर पास में ही एक पेशाबघर में छुप गया. अगले दिन करीब शाम चार बजे तक उसी में रहा. वहां से निकलकर मैंने पानी पिया. मेरी दशा ऐसी थी कि लोग मुझे पागल समझकर नज़रअंदाज कर रहे होंगे.”
नासिर मुरादनगर में अपने किसी परचित के यहां चला गया. उसके भागने और दिल्ली में तब के सांसद शहाबुद्दीन के घर पहुंचने की लंबी दास्तान है. इसके बाद युवा तुर्क कहे जाने वाले चंद्रशेखर की प्रेस कॉन्फ्रेंस में नासिर ने हाशिमपुरा की हकीकत दुनिया को बताई. हाशिमपुरा के लोगों को तो लग रहा था कि उनके अजीज़ लोग किसी जेल में बंद होंगे.
ज़िंदा बचे हर शख्स के पास एक जैसी ही कहानी है. सबकी माली हालत बेहद खराब है. स्थायी रूप से विकलांग हो चुके 55 वर्षीय मोहम्मद उस्मान बताते हैं,
”रमजान का महीना था लेकिन मैंने उस दिन रोज़ा नहीं रखा था. आठ दिन से कर्फ्यू था. आटा, दूध, घर में कुछ भी नहीं था. कर्फ्यू लगा था. बाहर कैसे निकलते? कमर और पैर में गोली लगी थी. नहर से बाहर निकलकर बैठे थे कि ”रात के 2.30-3.00 बजे एक पुलिसवाला जीप लेकर आया और बोला, ‘बेटा, पीएसी का नाम न लेना. तुझे अस्पताल ले जा रहे हैं. नाम लिया तो वहीं जहर का इंजेक्शन दे देंगे, तू पांच मिनट में खत्म हो जाएगा. बोलना कि मेरठ में बलवा हो गया था और मुझे गोली लग गई थी और किसी चीज में डालकर लाए और मुझे पानी में फेंक दिया. मैं पानी में से निकला और पुलिस ने मेरी जान बचाई. यह बयान दिया तो तेरी जान बच जाएगी.”
 कहने की ज़रूरत नहीं कि उस्मान ने यही बयान दिया.

इसके बाद की सियासत

राजीव गांधी हाशिमपुरा के दौरे पर पहुंचे. वीर बहादुर सिंह से भी जवाब-तलबी हुई. मगर 1988 तक वो मुख्यमंत्री बने रहे. जस्टिस राजिंदर सच्चर, आइ.के. गुजराल की सदस्यता वाली जांच समिति बनी. 1994 में समिति ने अपनी रिपोर्ट फाइल की. 1 जून 1995 को 19 अधिकारियों को दोषी मानकर मुकदमा चलाया गया. और इसके बाद तारीख पे तारीख और तारीख.

सत्ता जीती, इंसानियत फिर हारी

21 मार्च 2015 दिल्ली की तीस हज़ारी कोर्ट ने 16 आरोपियों को ‘बाइज़्ज़त बरी’ कर दिया. तीन आरोपी इस दौरान मर गए थे. ये तीस हज़ारी कोर्ट की उस समय पर सबसे लंबे समय तक चलने वाली ट्रायल थी. 27 साल और 161 गवाहों के बयानों बाद भी देश के कानून को ये पता नहीं चला कि आखिर नहर में तैरती उन लाशों का ज़िम्मेदार कौन था. हालांकि इसके बाद वर्तमान उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से पीड़ित परिवारों को 5-5 लाख का मुआवज़ा दिया गया मगर जो देश की धर्मनिरपेक्षता पर जो ज़ख्म लगा उसकी भरपाई की फिक्र किसी ने नहीं की.
इस मामले से जुड़ी सीनियर एडवोकेट रिबेका जॉन बीबीसी के लिए लिखे अपने एक लेख में कहती हैं.
“इस मामले से सबक लेने की ज़रूरत है. ज़िंदगी, आज़ादी और नागरिक अधिकारों से जुड़े मामलों में जल्द सुनवाई होनी ही चाहिए. खासतौर पर तब, जब पीड़ित गरीब या हाशिये पर खड़े लोग हों तो हमारी वर्तमान व्यवस्था उन्हें न्याय नहीं दिला सकती. पुलिस वाले जब अपनों के खिलाफ जांच करते हैं तो कोशिश रहती है कि ‘भाईचारे का बंधन’ निभ जाए (ये सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी है). सबसे मज़बूत सबूत नष्ट कर दिए जाते हैं. प्रक्रिया को बिखेर कर खराब कर दिया जाता है.”
हाशिमपुरा में शामिल कोई भी जवान कभी निलंबित नहीं हुआ. कुछ को तो तरक्की भी मिली. पुलिस वालों की निर्लज्जता का जो खाका ज़िंदा बच गए लोगों ने खींचा है वो बताता है कि इन पुलिसवालों को सज़ा का कोई डर नहीं था. आखिरकार ये बात साबित भी हो गई.
ये नरसंहार साबित करता है कि बात जब सियासी ध्रुवीकरण और उससे उपजे उन्माद को संभालने की आती हो तो सियासी पार्टियों का रुख कमोबेश एक सा ही रहता है.
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